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Wednesday, October 29, 2008

जन्म कुंडली से वैवाहिक सुख का ज्ञान

विवाह समाज द्वारा स्थापित एक प्राचीनतम परम्परा है जिसका उद्देश्य काम -संबंधों को मर्यादित करके सृष्टि की रचना में सहयोग देना है |सभी पुराणों,शास्त्रों एवम धर्म ग्रंथों में पितरों के ऋण से मुक्त होने के लिए तथा वंश परम्परा की वृद्धि के लिए विवाह की अनिवार्यता पर बल दिया गया है |
जन्म कुंडली से विवाह सुख का विचार
विवाह कब होगा ? विवाह होगा या नहीं ? जीवन -साथी कैसा होगा ? गृहस्थ जीवन कैसा रहेगा ? प्रेम विवाह होगा या पारम्परिक रीति रिवाजों के अनुसार - इत्यादि प्रश्नों का उत्तर हम अपनी जन्म कुंडली से प्राप्त कर सकते हैं |सभी प्राचीन फलित ज्योतिष के ग्रन्थ इस तथ्य पर सहमत हैं की जन्म कुंडली के सप्तम भाव से विवाह एवम गृहस्थ सुख का विचार करना चाहिए |लग्न एवम चन्द्र में जो बलवान हो उससे सप्तम भाव ग्रहण करना चाहिए |
पति /पत्नी के गुण ,स्वभाव व रूप का ज्ञान
सप्तम भाव में जैसा ग्रह स्थित होगा उसके कारक्तव व गुण -स्वभाव के अनुसार ही पति/पत्नी का गुण -रूप व स्वभाव होगा |सप्तम भाव में एक से अधिक ग्रह हों तो उनमे बली ग्रह का प्रभाव होगा | सप्तम भाव ग्रह रहित हो तो सप्तमेश या शुक्र के नवांश पति के अनुसार पति /पत्नी का स्वभाव आदि कहना चाहिए |
योग कारक ग्रह से पति /पत्नीगुण स्वभाव का ज्ञान
सूर्य--- पित्त प्रकृति ,अल्प केश ,नेत्रों में लालिमाचतुरस्र आकृति ,गंभीर ,उर्ध्व दृष्टि ,
उच्चाभिलाषी ,तेजस्वी ,साहसी ,स्पष्ट वक्ता,अंध विश्वास से रहित ,वाणी तथा चाल में गर्वीलापन ,लाल रंग प्रिय, स्वतंत्रता प्रिय तथा अधिक चर्बी से रहित पुष्ट शरीर
चन्द्र ---- वात एवम कफ प्रकृति ,सुंदर नेत्र ,कोमल शरीर ,मृदु स्वभाव ,चेहरे भरा हुआ व गोलाई लिए ,नाक छोटी ,संवेदनशील ,चंचल ,गीत -संगीत -कविता में रूचि ,सोंदर्य प्रियता ,शरीर में कुछ स्थूलता ,भावुकता ,कल्पना शीलता ,स्वपन दर्शिता ,कभी -कभी निराशा का प्रभाव ,नमकीन पदार्थों में रूचि ,श्वेत रंग प्रिय
मंगल ---पित प्रकृति , नेत्रों में लालिमा, क्रोध एवम आतुरता ,गर्व से युक्त वाणी ,ठोडी बड़ी एवम चौरस ,होंठ कुछ मोटे ,हठी स्वभाव ,वाणी में मिठास का अभाव ,लाल रंग अच्छा लगे ,उन्नत मांसपे शिया ,स्थूलता रहित ,चेहरा लंबा एवम तर्कशील
बुध ----सम प्रकृति ,मुख चौडा ,शरीर भारी ,ठोडी ऊपर को उठी हुई ,उन्नत ललाट ,व्यवहारिक, संचय की प्रवृत्ति ,बहुभोजी ,सतर्क ,हरे पदार्थ प्रिय ,गणित एवम वाणिज्य में रूचि,सांवला रंग ,शरीर में नसें दिखाई दें ,हास्य प्रिय ,तिरछी नजर से देखे ,ग्रामचारी ,
गुरु ---कफ प्रकृति ,केश व नेत्रों का रंग भूरा ,लंबा कद मिष्ठान प्रिय , शरीर भारी , गाल पुष्ट उठी हुई नाक धर्मं मैं रुचि ,वाणी में गंभीरता ,उदार , स्वाभिमानी , अनुशासन प्रिय , उन्नत मस्तक ,पढ़ने लिखने मैं रुचि, श्रेष्ठ मति ,पीला रंग अच्छा लगे ,स्वर्ण के समान गौर वर्ण ,चर्बी की अधिकता
शुक्र ---- वात एवम कफ प्रकृति ,श्याम वर्ण ,रंग -बिरंगे वस्त्र धारण करने में रूचि ,केश काले एवम लहरदार ,खट्टे पदार्थों में रूचि ,सुंदर ,सुखाभिलाशी ,मधुर भाषण ,लंबे हाथ ,सुगंध प्रिय
शनि ---- वात प्रकृति ,काला रंग ,लंबा कद ,अधो दृष्टि ,शुष्क त्वचा एवम केश ,अल्प भाषी ,धीमी चाल ,मोटे दांत ,दुबला शरीर ,शरीर में नसें दिखाई दें ,असुंदर ,वाणी में कठोरता ,नेत्रों में पीलापन ,कंजूस
बहुत से विद्वान् जन्म लग्न के नवांशेश से भी पति /पत्नी की प्रकृति की कल्पना करते हैं |
विवाह स्थान का निर्णय
सप्तम भाव में चर राशिः ,नवांश हो तो विवाह सम्बन्ध जनम स्थान से दूर ,स्थिर राशिः ,नवांश हो तो निकट तथा द्वि स्वभाव राशिः-नवांश हो तो मध्यम दूरी पर तय होता है |सप्तम भाव में जो ग्रह स्थित होते हैं उनमे बली ग्रह की दिशा में विवाह होता है |सप्तम भाव में कोई ग्रह न हो तो जो बली ग्रह भाव को देखता है उसकी दिशा में विवाह होता है |कोई ग्रह भी न देख रहा हो तो सप्तम भाव में स्थित राशिः या नवांश राशिः की दिशा में विवाह सम्भव होता है |सप्तमेश की अधिष्ठित राशिः -नवांश की दिशा भी विचारणीय होती है |
सूर्य की दिशा पूर्व ,चन्द्र की वायव्य ,मंगल की दक्षिण ,बुध की उत्तर ,गुरु की ईशान ,शुक्र की आग्नेय ,शनि की पश्चिम तथा राहू की नैऋतव दिशा होती है |मेष ,सिंह ,धनु राशिओं की पूर्व दिशा ,वृष -कन्या - मकर की दक्षिण दिशा ,मिथुन - तुला - कुम्भ की पश्चिम दिशा तथा कर्क -वृश्चिक -मीन की उत्तर दिशा होती है |
गृहस्थ जीवन कैसा होगा ?
सप्तमेश ,सप्तम भाव ,कारक शुक्र तीनों शुभ युक्त ,शुभ दृष्ट ,शुभ राशिः से युक्त हो कर बलवान हों ,सप्तमेश व शुक्र लग्न से केन्द्र -त्रिकोण या लाभ में स्थित हों तो गृहस्थ जीवन पूर्ण रूप से सुखमय होता है |लग्न का नवांशेश जन्म कुंडली में बलवान व शुभ स्थान पर हो तो गृहस्थ जीवन आनंद से व्यतीत होता है | लग्नेश एवम सप्तमेश की मैत्री हो व दोनों एक दूसरे से शुभ स्थान पर हों तो दांपत्य जीवन में कोई बाधा नहीं आती |लग्नेश एवम सप्तमेश का जन्म कुंडली के शुभ भावों में युति या दृष्टि सम्बन्ध हो अथवा दोनों एक - दूसरे के नवांश में हों तो पति -पत्नी का परस्पर प्रगाढ़ प्रेम होता है |
सप्तम भाव में पाप ग्रह हों ,सप्तमेश एवम शुक्र नीच व शत्रु राशिः-नवांश में ,निर्बल ,पाप युक्त व दृष्ट ,६,८,१२वें भाव में स्थित हों तो विवाह में विलंब ,बाधा एवम गृहस्थ जीवन में कष्ट रहता है |लग्नेश एवम सप्तमेश एक दूसरे से ६,८,१२ वें स्थान पर हों तथा परस्पर शत्रु हों तो गृहस्थ जीवन सुखी नहीं रहता | ६,८,१२, वें भावों के स्वामी निर्बल हो कर सप्तम भाव में स्थित हों तो वैवाहिक सुख में बाधा करतें हैं |सप्तम भाव से पहले एवम आगे के भाव में पाप ग्रह स्थित हों तो गृहस्थ जीवन में परेशानियाँ रहती हैं |
विवाह कब होगा ?
सप्तम भाव में स्थित बलि ग्रह की दशा-अन्तर्दशा में विवाह होता है|लग्न अथवा चन्द्र से सप्तमेश ,द्वितीयेश ,इनके नवांशेश ,शुक्र व चन्द्र की दशाएं भी विवाह्कारक होती हैं |सप्तम भाव या सप्तमेश को देखने वाला शुभ ग्रह भी अपनी दशा में विवाह करा सकता है |उपरोक्त दशाओं में सप्तमेश ,लग्नेश ,गुरु एवम विवाह कारक शुक्र का गोचर जब लग्न ,सप्तम भाव या इनसे त्रिकोण में होता है उस समय विवाह का योग बनता है |लग्नेश एवम सप्तमेश के स्पस्ट राशिः -अंशों इत्यादि का योग करें ,प्राप्त राशिः में या इससे त्रिकोण में गुरु का गोचर होने पर विवाह होता है |

Monday, September 29, 2008

वास्तु निर्माण से सम्बंधित शास्त्रीय नियम

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वास्तु
निर्माण से सम्बंधित शास्त्रीय नियम

प्राचीन एवम सर्वमान्य संहिता व वास्तु ग्रंथो में प्रतिपादित कुछ शास्त्रीय वास्तु नियमों का उल्लेख किया जाता है | वास्तु निर्माण में इनका प्रयोग करने पर वास्तु व्यक्ति के लिए सब प्रकार से शुभ ,समृद्धि कारक एवम मंगलदायक होता है |आजकल के तथाकथित वास्तु शास्त्रियों द्वारा जनसाधारण को व्यर्थ के बहम में डालने वाले तथा अपने ही गढे हुए नियमों पचडे में न पड़ कर केवल इन्हीं शास्त्रीय नियमों का पालन करने पर वास्तु सब प्रकार से शुभ होता है।
भूमि
  • पूर्व ,उत्तर ,ईशान दिशाओं में झुकी भूमि शुभ होती है |
  • नदी के समीप ,बाम्बी वाली ,फटी , मन्दिर या चौराहे के निकट की भूमि आवास के लिए शुभ नहीं होती |
  • निर्माणाधीन भूखंड में से कोयला,अस्थि ,केश ,भस्म, भूसा ,कपास एवम चमड़ा आदि शल्य निकाल देने चाहियेंअन्यथा गृह वासिओं को कष्ट प्रदान करते हैं |
  • गृह निर्माण में वास्तु शास्त्र में वर्णित किसी एक ही वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग हो तो शल्य दोष नहीं होता |
  • गृह निर्माण में शीशम ,खैर ,देवदार ,सागवान ,चंदन आदि वृक्षों की लकड़ी का प्रयोग करें
  • नवीन गृह में पुराने घर की लकड़ी का प्रयोग अशुभ फल दायक है |
वास्तु का आकार
  • वर्गाकार तथा आयताकार भूखंड जिनके चारों कोण ९०-९० अंश के हों वास्तु के लिए शुभ होते हैं |
  • जितने भूखंड पर निर्माण किया जाना है ,उसकी लम्बाई ,चौडाई से दुगनी या अधिक नहीं होनी चाहिए |
  • भूखंड असमान भुजाओं या कोण का हो तो आस-पास जगह छोड़ कर गृह निर्माण वर्ग या आयत में ही करें | खालीजगह पर उद्यान -वनस्पति लगायें |
  • निर्माणाधीन भूखंड को दिक् शुद्ध अवश्य कर लें ,तभी वास्तु पुरूष के पूर्ण अंग वास्तु में आयेंगे तथा गृहस्वामी कोसुख,धन धान्य यश एवम समृद्धि प्राप्त होगी |

किस स्थान पर क्या बनायें
  • गृह के पूर्वी भाग में या उत्तरी भाग में जल का स्थान रखें |
  • आग्नेय कोण में रसोई घर बनवाएं |
  • शयन कक्ष को गृह के दक्षिणी भाग में निश्चित करें |
  • भोजन करने का स्थान पश्चिम दिशा में होना चाहिए |
  • पूजा गृह ईशान कोण में अधिक शुभ रहता है |
  • शौचालय नै त्य दिशा में बनवाएं |
  • नैत्य एवम पश्चिम दिशा के मध्य अध्ययन कक्ष शुभ रहता है |
  • सीढ़ी उत्तर या पश्चिम में शुभ हैं ,विषम संख्या में हों तथा सदैव दा ओर मुडती हों |ऊपर पूर्व या दक्षिण की ओरखुलती हों
  • गृह के प्रथम खंड में सूर्य किरण तथा वायु का आना बहुत शुभ होता है |
मुख्य द्वार
  • १५हाथ ऊँचा , हाथ चौडा उत्तम एवम १३ हाथ ऊँचा हाथ चौडा मध्यम कहा गया है |
  • मुख्य द्वार के सामने कोई वृक्ष ,स्तंभ ,मन्दिर ,दिवार का कोना ,पानी का नल ,नाली ,दूसरे घर का द्वार तथा कीच हो तो वेध करता है |
  • गृह की ऊंचाई से दुगनी दूरी पर वेध हो या गृह राजमार्ग पर स्थित हो तो वेध नहीं होता |
  • वास्तुराज वल्लभ के अनुसार सिंह -वृश्चिक -मीन राशिः वालों के लिए पूर्व दिशा में ,कर्क -कन्या -मकर राशिःवालों के लिए दक्षिण ,मिथुन -तुला -धनु राशिः वालों के लिए पश्चिम एवम मेष -वृष - कुम्भ राशिः वालों के लिएउत्तर दिशा में मुख्य द्वार बनवाना शुभ होता है |
  • वराह मिहिर के अनुसार जिस दिशा में मुख्य द्वार रखना है भूखंड की उस भुजा के बराबर आठ भाग करें ,पूर्वीदिशा में बांयें से तीसरा चौथा भाग ,दक्षिण दिशा में केवल चौथा भाग ,पश्चिमी दिशा उत्तरी दिशा में तीसराचौथा -पांचवां भाग मुख्य द्वार के निर्माण के लिए शुभ होता है |
- अन्य दोष निवारक वास्तु नियम
  • गृह में प्रवेश करते समय गृह का पृष्ठ भाग दिखना शुभ नहीं होता |
  • उत्तर एवम पश्चिम दिशा में रोशनदान शुभ नहीं होते |
  • पंचक नक्षत्रों में घर के लिए लकड़ी मत खरीदें |
  • घर के सभी द्वार एक सूत्र में होने चाहियें ,ऊपर की मंजिल के द्वारों किउंचाई नीचे के द्वारों से द्वादशांश छोटी होनी चाहिये | गृह के द्वार अपने आप ही खुलते या बंद होते हो तो अशुभ हैगृह द्वार प्रमाण से अधिक लम्बे हो तोरोग कारक तथा छोटे हो तो धन नाशक होते हैगृह द्वार पर मधु का छत्ता लगे या चौखट, दरवाजा गिर जाये तोगृह पति को कष्ट होता हैघर में चौरस स्तम्भ बनवाना शुभ होता है तथा गोल स्तम्भ बनवाना अशुभ
  • गृह वृद्धि चारो दिशाओ में समान होनी चाहियेकेवल पूर्वी दिशा में वृद्धि करने पर मित्र से वैर ,उत्तर में चिंता , पश्चिम में धन नाश तथा दक्षिण में क्षत्रु भय होता है
  • द्वार उपर के भाग मई आगे घुका हो तो संतान नाशक होता है
  • घर मई कपोत , गिद्ध , वानर , काक तथा भयानक चित्र शुभ नही होते
  • घर के उद्यान में अशोक, निम्बू ,अनार ,चम्पक , अंगूर , पाटल , नारियल ,केतकी ,शमी आदि वृक्षो का लगाना शुभहै
  • घर के उद्यान में हल्दी , केला , नीम , बेहडा ,अरंड तथा सभी कांटे दार एवं दूध वाले वृक्ष लगाने का निषेध है ।
  • मुख्य द्वार पर स्वास्तिक , गणेश , कलश, नारियल ,शंख ,कमल आदि मंगलकारी चिह्नों को अंकित करने से गृह के दोषों का निवारण होता है ।
  • नवीन गृह में प्रवेश से पूर्व वास्तु पूजा तथा श्री रामचरितमानस का पाठ करने से समस्त वास्तुजनित दोष दूर हो जाते है ।

Monday, September 22, 2008

किस वार में क्या करें ?

रवि आदि सप्त वारों की प्रकृति एवम उनमें किए जाने वाले कार्यों का वर्णन पुराणों ,मुहूर्त ग्रंथों एवम फलित ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार निम्नलिखित अनुसार है ---------

वार

प्रकृति

यात्रा में दिशा

त्याज्य दिशा

किए जाने वाले कार्य

रविवार

ध्रुव

पूर्व ,उत्तर , ,अग्नि कोण

पश्चिम ,वायव्य

गृह प्रवेश ,राज्य कार्य ,स्वर्ण एवम ताम्बे का क्रय विक्रय तथा धारण करना ,विज्ञानं ,अनाज ,अग्नि एवम बिजली के कार्य

सोमवार

सम

दक्षिण ,पश्चिम ,वायव्य

उत्तर ,पूर्व ,आग्नेय

राज्याभिषेक ,गृह शुभारम्भ ,कृषि ,लेखन ,दूध -घी तरल पदार्थों का क्रय विक्रय ।

मंगलवार

उग्र

दक्षिण , पूर्व,अग्नि कोण

पश्चिम, ,वायव्य , उत्तर

विवाद एवम मुकद्दमे का आरम्भ ,शस्त्र अभ्यास ,शौर्य के कार्य ,शल्य चिकित्सा ,बिजली के कार्य ,अग्नि से संबधित कार्य ,धातुओं का क्रय विक्रय

बुधवार

चर, सौम्य

दक्षिण ,

नैऋत्य ,पूर्व

उत्तर ,पश्चिम ,ईशान
यात्रा,मंत्रणा ,लेखन ,गणित ,शेयर ,व्यापार,ज्योतिष ,शिल्प ,लेखा कार्य ,शिक्षा ,बोद्धिक कार्य,संपादन ,संदेश भेजना ,मध्यस्थता करना

गुरुवार

क्षिप्र

उत्तर ,पूर्व ,ईशान

दक्षिण , पूर्व , नैऋत्य ,
यात्रा ,धार्मिक कार्य ,विद्याध्ययन ,बैंक का कार्य ,वस्त्र अलंकार धारण करना ,प्रशासनिक कार्य,स्वर्ण का क्रय ,पुत्र एवम गुरु से सम्बंधित कार्य

शुक्रवार

मृदु

पूर्व उत्तर ईशान

नैऋत्य ,पश्चिम ,दक्षिण
गृह प्रवेश ,कन्या दान ,सहवास ,नृत्य ,गायन ,संगीत ,कलात्मक कार्य ,आभूषण ,श्रृंगार ,सुगन्धित पदार्थ ,वस्त्र ,वाहन क्रय ,चाँदी ,सुखोपभोग के साधन

शनिवार

दारुण

नैऋत्य,पश्चिम ,दक्षिण

पूर्व उत्तर ईशान


,



गृहारंभ ,गृह प्रवेश ,विवाद के लिए गमन ,तकनीकी कार्य ,शल्य क्रिया ,क्रूर कार्य ,प्लास्टिक -तेल -पेट्रोल का कार्य या क्रय विक्रय ,लकड़ी ,सीमेंट

Friday, September 12, 2008

जन्मकुंडली से रोग निदान


जन्मकुंडली से रोग निदान


आयुर्वेद एवम ज्योतिश्शाश्त्र के अनुसार हमारे पूर्वार्जित पाप कर्मों के फल ही समय समय पर विभिन्न रोगों के रूप में हमारे शरीर में प्रगट होतें हैं । हरित सहिंता का यह श्लोक देखिये -
जन्मान्तर कृतं पापं व्याधिरुपेण बाधते |
तच्छान्तिरौषधैर्दानर्जपहोमसुरार्चनै : ||

अर्थात पूर्व जन्म में किया गया पाप कर्म ही व्याधि के रूप में हमारे शरीर में उत्पन्न हो कर कष्टकारक होता है तथा औषध, दान ,जप ,होम व देवपूजा से रोग की शान्ति होती है |आयुर्वेद में कर्मदोष को ही रोग की उत्पत्ति का कारण माना गया है |
कर्म के तीन भेद कहे गए हैं ;
सन्चित

प्रारब्ध

क्रियमाण
आयुर्वेद के अनुसार संचित कर्म ही कर्म जन्य रोगों के कारण हैं जिनके एक भाग को प्रारब्ध के रूप में हम भोग रहे हैं । वर्तमान समय मेंकिए जाने वाला कर्मही क्रियमाण है ।वर्तमान काल में मिथ्या आहार -विहार के कारण भी शरीर में रोग उत्पन्न हो जाता है । आचार्य सुश्रुत ,आचार्य चरक व त्रिष्ठाचार्य के मतानुसार कुष्ठ , उदररोग ,,गुदरोग, उन्माद , अपस्मार ,पंगुता ,भगन्दर , प्रमेह ,अन्धता ,अर्श, पक्षाघात ,देह्क्म्प ,अश्मरी ,संग्रहणी ,रक्तार्बुद ,कान व वाणी दोष इत्यादि रोग ,परस्त्रीगमन ,ब्रहम हत्या ,पर धन अपहरण ,बालक-स्त्री-निर्दोष व्यक्ति की हत्या आदि दुष्कर्मों के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं । अतः मानव द्वारा इस जन्म या पूर्व जन्म में किया गया पापकर्म ही रोगों का कारण होता है । तभी तो ऐसे मनुष्य भी कभी-कभी कलिष्ट रोगों का शिकार हो कर कष्ट भोगतें हैं जो खान-पान में सयंमी तथा आचार-विचार में पुरी तरह शुद्ध हैं ।

जन्मकुंडली से रोग उसके समय का ज्ञान

जन्मकुंडली के माध्यम से यह जानना सम्भव है कि किसी मनुष्य को कब तथा क्या बीमारी हो सकती है । जन्मकुंडली में ग्रह स्थिति ,ग्रह गोचर तथा दशा-अन्तर्दशा से उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है क्योंकि जन्म पत्रिका मनुष्यों के पूर्वजन्मों के समस्त शुभाशुभ कर्मों को दीपक के समानप्रगट करती हैं जिनका शुभाशुभ फल इस जन्ममें प्राप्त होना है ।
यदुपचित मन्य जन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मण: प्राप्तिम
व्यंज्ज्यती शास्त्र मेंत तमसि द्रव्याणि दीप इव
( फलित मार्तण्ड )
दक्षिण भारत केप्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ प्रश्न मार्ग में रोगों का दो प्रकार से वर्गीकरण किया है ।
सहज रोग

आगंतुक रोग
सहज रोग ----

जन्मजात रोगों को सहज रोगों के वर्ग में रखा गया है । अंग हीनता ,जन्म से अंधापन ,गूंगा व बहरापन ,पागलपन ,वक्र ता एवम नपुंसकता आदि रोग सहज रोग हैं जो जन्म से ही होते हैं । सहज रोगों का विचार अस्टमेश तथा
आठवें भावः में स्थित ,निर्बल ग्रहों से किया जाता है । ये रोग प्राय: दीर्घ कालिक तथा असाध्य होते हैं ।

आगंतुक रोग

चोट ,अभिचार ,महामारी ,दुर्घटना ,शत्रु द्वारा घात आदि प्रत्यक्ष कारणों से तथा ज्वर ,रक्त विकार ,धातु रोग ,उदर विकार ,वात - पित - कफ की विकृति से होने वाले रोग जो अप्रत्यक्ष कारणों से होते हैं आगंतुक रोग कहे गये हैं । इनका विचार षष्टेश ,छ्टे भावः में स्थित निर्बल ग्रहों तथा जनमकुंडली में पीड़ित राशिः ,पीड़ित भावः एवम पीड़ित ग्रहों से किया जाता है ।

भावः एवम राशिः से सम्बंधित शरीर के अंग रोग ----


जन्म कुंडली में जो भावः या राशिः पाप ग्रह से पीड़ित हो या जिसका स्वामी त्रिक भावः मे हो उस राशिः तथा भावः का अंग रोग से पीड़ित हो जाता है । बारह भावों एवम राशिओं से सम्बंधित अंग इस प्रकार हैं ----



भावः


राशिः

शरीर का अंग

रोग

पहला

मेष

सिर , मस्तिष्क , सिर के केश

मस्तिष्क रोग , सिर पीडा , चक्कर आना , मिर्गी , उन्माद , गंजापन , ज्वर ,गर्मी , मस्तिष्क ज्वर इत्यादि ।

दूसरा

वृष

मुख , नेत्र , चेहरा, नाक,दांत ,जीभ ,होंठ ,ग्रास नली

मुख , नेत्र , दांत, नाक आदि के रोग आदि ।

तीसरा

मिथुन

कंठ ,कर्ण,हाथ,भुजा,कन्धा,श्वास नली

खांसी ,दमा,गले मे पीड़ा ,बाजु मे पीड़ा ,कर्ण पीड़ा आदि ।

चौथा

कर्क

छाती , फेफड़े ,स्तन,ह्रदय ,मन ,पसलियाँ

ह्रदय रोग ,श्वास रोग , मनोविकार ,पसलियों का रोग ,अरुचि आदि ।

पांचवा

सिंह

उदर , जिगर ,तिल्ली ,कोख , मेरु दण्ड, बुद्धि

उदर पीडा ,अपच , जिगर का रोग, पीलिया , बुद्धिहीनता,गर्भाशय मे विकार,पीलिया आदि ।

छठा

कन्या

कमर, आन्त , नाभि

दस्त ,आन्त्रदोष , हर्निया , पथरी ,अपेंडिक्स ,कमर मे दर्द ,दुर्घटनाआदि ।

सातवाँ

तुला

मूत्राशय , गुर्दे , वस्तिस्थान

गुर्दे मे रोग , मूत्राशय के रोग , मधुमेह , प्रदर , पथरी , मूत्रक्रिच्छ आदि ।

आठवां

वृश्चिक

गुदा ,अंडकोष , जननैन्द्रिय , लिंग , योनि

अर्श , भगंदर , गुप्त रोग ,मासिक धर्मं के रोग ,दुर्घटनाइत्यादि ।

नवां

धनु

जांघ , नितंब

वात विकार , कुल्हे का दर्द , गठिया , साईंटिका ,मज्जा रोग ,यकृत दोष इत्यादि ।

दसवां

मकर

घुटने ,टाँगे

वात विकार ,गठिया , साईंटिका इत्यादि ।
ग्यारहवां

कुम्भ

टखने ,पिंड लियां ,

काफ पेन ,नसों की कमजोरी ,एंठन इत्यादि ।

बारहवां

मीन


पोलियो ,,आमवात ,रोगविकार ,पैर में पीडा इत्यादि ।















ग्रहों से सम्बंधित अंग रोग


सूर्य इत्यादि नवग्रह शत्रु -नीचादि राशिः -नवांश में ,षड्बलहींन,पापयुक्त ,पापदृष्ट ,त्रिकस्थ हों तो अपने कारकत्व से सम्बंधित रोग उत्पन्न करते हैं । ग्रहों से सम्बंधित अंग ,धातु व रोग इस प्रकार हैं -

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ग्रह

अंग

धातु

रोग

सूर्य

नेत्र ,सिर हृदय

अस्थि

ज्वर ,हृदय रोग ,अस्थि रोग पित्त ,जलन ,मिर्गी ,नेत्र रोग ,शस्त्र से आघात ,ब्रेन फीवर

चन्द्र

नेत्र ,मन ,कंठ ,फेफडे

रक्त

जलोदर ,नेत्रदोष ,निम्न रक्त चाप ,अरुचि ,मनोरोग ,रक्त की कमी ,कफ मन्दाग्नि ,अनिद्रा ,पीलिया ,खांसी -जुकाम ,व्याकुलता

मंगल

मांसपेशियां, उदर ,पीठ

मांस ,मज्जा

जलन ,दुर्घटना ,बवासीर ,उच्च रक्तचाप ,खुजली ,मज्जा रोग ,विष भय ,निर्बलता ,गुल्म ,अभिचार कर्म ,बिजली से भय

बुध

हाथ ;वाणी ,कंठ

त्वचा

त्रिदोष ,पाण्डु रोग ,बहम ,कंठ रोग ,कुष्ठ ,त्वचा रोग ,वाणी विकार ,नासिका रोग ,

गुरु

जघन प्रदेश ,आंतें

वसा

आंत्र ज्वर ,गुल्म ,हर्निया ,सुजन ,कफ दोष ,स्मृति भंग ,कर्ण पीडा ,मूर्छा इत्यादि

शुक्र

गुप्तांग

वीर्य

प्रमेह,मधुमेह ,नेत्र विकार ,मूत्र रोग ,सुजाक ,प्रोंसटैँट ग्लांड्स की वृद्धि ,शीघ्र पतन , स्वप्न दोष ,ऐड्स एवम प्रजनन अंगों से सम्बंधित रोग इत्यादि

शनि

जानू प्रदेश ,पैर

स्नायु

थकन ,वात रोग ,संधि रोग ,पक्षाघात ,पोलियो ,कैंसर ,कमजोरी ,पैर में चोट ,

राहू

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कुष्ठ ,ह्रदय रोग ,विष भय ,मसूरिका ,कृमि विकार ,अपस्मार इत्यादि

केतु

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चर्म विकार ,दुर्घटना ,गर्भ श्राव ,विषभय






रोग के प्रभाव का समय ---

पीड़ा कारक ग्रह अपनी ऋतू में ,अपने वार में ,मासेश होने पर अपने मास में ,वर्षेश होने पर अपने वर्ष में ,अपनी महादशा ,अन्तर्दशा ,प्रत्यंतर दशा व् सूक्षम दशा में रोगकारक होते हैं । गोचर में पीड़ित भावः या राशिः में जाने पर भी निर्बल व् पाप ग्रह रोग उत्पन्न करते हैं । सूर्य २२ वें ,चन्द्र २४ वें ,मंगल २८ वें ,बुध ३५ वें ,गुरु १६ वें ,शुक्र २५ वें ,शनि ३६ वें, राहु ४४ वें तथा केतु ४८ वें वर्ष मेंभी अपना शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं ।

रोग शान्ति के उपाय -----

ग्रहों की विंशोत्तरी दशा तथा गोचर स्थिति से वर्तमान या भविष्य में होने वाले रोग का पूर्वानुमान लगा कर पीडाकारक ग्रह या ग्रहों का दान ,जप ,होम व रत्न धारण करने से रोग टल सकता है या उसकी तीव्रता कम की जा सकती है । ग्रह उपचार से चिकित्सक की औषधि के शुभ प्रभाव में भी वृद्धि हो जाती है । प्रश्न मार्ग के अनुसार औषधि का दान तथा रोगी की निस्वार्थ सेवा करने से व्यक्ति को रोग पीड़ा प्रदान नहीं करते । दीर्घ कालिक एवम
असाध्य रोगों की शान्ति के लिए रुद्र सूक्त का पाठ ,श्री महा मृत्युंजय का जप तुला दान ,छाया दान ,रुद्राभिषेक ,
पुरूष सूक्त का जप तथा विष्णु सहस्र नाम का जप लाभकारी सिद्ध होता है । कर्म विपाक सहिंता के अनुसार प्रायश्चित करने पर भी असाध्य रोगों कीशान्ति होती है ।

Sunday, August 17, 2008

काल सर्प योग (एक दुर्योग या व्यर्थ प्रचारित भ्रम) Kalsarpa Yoga

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काल सर्प योग की वास्तविक्ता प्रगट करने वाला लेख